84 लाख योनियां अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग बताई बताई जाती है, लेकिन सभी एक ही मानी जाती है। अनेक आचार्यों द्वारा इन 84 लाख योनियों को 2 भागों में बांटा गया है। इसमें से पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज है मतलब 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी को योनिज कहा जाता है और जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं। उन्हें आयोनिज कहा जाता है। इसके अलावा मूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा जाता है, जोकि नीचे दिए गए अनुसार हैं: –
- जलचर:–जल में रहने वाले सारे प्राणी।
- थलचर :-पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणी।
- नभचर :- आकाश में विहार करने वाले सारे प्राणी।
ऊपर दिए गए 3 प्रमुख प्रकारों के अंतर्गत मुख्य प्रकार होते हैं मतलब 84 लाख योनियों में प्रारंभ में नीचे दिए गए 4 वर्गों में बांटा जाता है।
- जरायुज :- माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु को जरायुज कहा जाता है ।
- अंडज :- अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी को अंडज कहा जाता है।
- स्वदेज :- मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु को स्वेदज कहा जाता है।
- उदि्भज :- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी को उदि्भज कहा जाता है।
पदम् पुराण के एक श्लोकानुसार…
जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।
पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:।।
इसका अर्थ यह है जलचर 9 लाख, स्थावर मतलब पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि मतलब कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के होते हैं। कुल 84 लाख माने जाते हैं।
84 लाख योनियों का विवरण नीचे दिए गए अनुसार है:-
- पानी के जीव-जंतु:- 9 लाख
- पेड़-पौधे:- 20 लाख
- कीड़े-मकौड़े:- 11 लाख
- पक्षी:- 10 लाख
- पशु:- 30 लाख
- देवता-दैत्य-दानव-मनुष्य आदि:- 4 लाख
- कुल योनियां:- 84 लाख।
‘प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प‘ ग्रंथ में शरीर की रचना के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण किया जाता है, जो कि नीचे दिए गए अनुसार है:-
- एक शफ (एक खुर वाले पशु):- खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण को शामिल किया जाता है।
- द्विशफ (दो खुर वाले पशु):- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि शामिल है।
- पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु:-सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृंगाल आदि को शामिल किया जाता है।
मनुष्य जन्म कब प्राप्त होता है?
एक प्रचलित मान्यता के अनुसार एक आत्मा को कर्मगति अनुसार 30 लाख बार वृक्ष योनि में जन्म प्राप्त होता है। उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में 9 लाख बार जन्म प्राप्त होता है। उसके बाद कृमि योनि में 10 लाख बार जन्म प्राप्त होता है। और फिर 11 लाख बार पक्षी योनि में जन्म प्राप्त होता है।
उसके बाद 20 लाख बार पशु योनि में जन्म प्राप्त होता है। अंत में कर्मानुसार गौ का शरीर प्राप्त करके आत्मा मनुष्य योनि प्रवेश करता है और फिर 4 लाख बार मानव योनि में जन्म लेने के बाद पितृ या देव योनि की प्राप्त होती है। यह सभी कर्म अनुसार चलता जाता है। मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद नीच कर्म करने वाला फिर से नीचे की योनियों में सफर करने लग जाता है। मतलब उल्टेक्रम में गति करता है। जिसे ही दुर्गति कहा जाता है।
मनुष्य का पतन कैसे होता है
कठोपनिषद अध्याय 2 वल्ली 2 के 7वें मंत्र में यमराज जी कहते हैं कि अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार शास्त्र, गुरु, संग, शिक्षा, व्यवसाय आदि के द्वारा सुने हुए भावों के अनुसार मरने के बाद कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पाप- पुण्य समान होते हैं। वह मनुष्य का जन्म प्राप्त करते हैं। जिनके पुण्य कम तथा पाप ज्यादा होते हैं, वह पशु-पक्षी का शरीर धारण कर के उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप बहुत ज्यादा होते हैं, वह स्थावर भाव को प्राप्त होते हैं मतलब वृक्ष, लता, तृण आदि जड़ शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं।
अंतिम इच्छाओं के कारण परिवर्तित जीन्स जिस जीव के जीन्स से मिल जाते है।उसी प्रकार ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आ जाता है।
मानव शरीर त्यागने के बाद हमें दोबारा मनुष्य शरीर इसलिए मिलता ,क्योंकि 84 लाख योनियों में केवल मनुष्य ही एक ऐसी योनि है जिसमें सोच समझकर कर्म करने की इच्छा शक्ति होती है। केवल मनुष्य शरीर ही समझ सकता है, कि स्वर्ग क्या होता है और नर्क क्या होता है। इसी प्रकार मानव ही सच और झूठ में समझ सकता है।
सिर्फ मनुष्य ही होता जो सिर्फ ये जान सकता है कि अच्छा और बुरा क्या है। वहीं मनुष्य ही धर्म और पाप में फर्क जान सकता है। वह केवल मनुष्य ही है जिसको परमात्मा को प्राप्त करने का रास्ता मालूम होता है और इसी तरह सिर्फ मानव ही आत्मा का रहस्य जान सकता है। इस लिए मानव जब अपने जीवन का त्याग कर देता है, तो उस मानव को उसके कर्म के अनुसार ही अगली योनि में जन्म प्राप्त है। इस लिए उस योनि में मानव को सोचने और समझने की क्षमता नहीं होती है और इसी कारण मनुष्य ऐसी ही योनियों में फसता चला जाता है और जितना मनुष्य इन योनियों में जन्म लेते चले जाते है। उतना ही मनुष्य रूपी योनि उनसे दूर होती चली जाती हैं। इस लिए ऐसा कहा जाता है, कि मनुष्य को 84 लाख योनियों को पार करने के बाद ही मनुष्य रूपी योनि की प्राप्ति होती हैं।
मानव योनि को चौरासी लाख योनियों में सबसे उत्तम माना जाता है। इस लिए मनुष्य योनि प्राप्त करके इंसान को शुभ कर्म करने चाहिए। मनुष्य को अशुभ कर्मों से मुख मोड लेना चाहिए। चौरासी लाख योनियों को भोगने के बाद व्यक्ति को मानव शरीर प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को इस योनि में अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि उसका जीवन सफल हो सके।
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